रविवार, 26 नवंबर 2017

मांग जायज है

शिक्षाकर्मीयो  की मांग वैधानिक
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आज संविधान दिवस पर संवैधानिक बातें कर रहा हूँ जरूर पढियेगा-----
         शिक्षा कर्मियों की हड़ताल से अनेको सवाल उठ रहे है । सवाल उठना लाजमी है क्योंकि हड़ताल से ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में ताला जो लटका है ,मध्यान भोजन जैसी महती योजना का संचालन जो बंद हुआ है । आखिर जिन शिक्षकों को  राष्ट्र निर्माता कहा जाता है वे अपने दायित्वों से विमुख होकर सड़क में क्यो बैठे है ? उनकी मजबूरी क्या है ? हमारे शिक्षक इतना विवेक शून्य क्यो हो गए है ? बार बार  सड़क पर क्यो उतरते है ? उनकी कुछ तो मजबूरी होगी जिसका समय रहते स्थाई समाधान ढूंढना जरूरी हो गया है ।
    समस्या का सूत्रपात  अविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री परिषद द्वारा 12 जुलाई 1994 को लिये गए निर्णय से हुआ । जिसमें कहा गया कि - स्कूल शिक्षा विभाग , आदिम जाति , अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के अधीन चल रहे समस्त स्कूल पंचायतो के नियंत्रण में कार्य करेंगे तथा स्कूलों के संचालन का पूर्ण उत्तरदायित्व सम्बन्धित जनपद  पंचायतों का रहेगा । यह भी निर्णय लिया गया था कि स्कूलों में पदस्थ सभी शासकीय सेवक तथा सहायक शिक्षक , शिक्षक , व्याख्याता के रिक्त पद के विरुद्ध नियुक्त किये जाने वाले शिक्षा कर्मी वर्ग 1, 2 , 3 जनपद पंचायत के कार्यकारी नियंत्रण के अधीन रहेंगे । यह भी कहा गया कि 73 वें तथा 74 वें संविधान संशोधन के फलस्वरूप पंचायतो को अधिकारों का प्रत्यायोजन किया जा रहा है । मेरे ख्याल से विवाद का जड़ यही है कि उक्त निर्णयानुसार न तो शासकीय सेवको (कार्यरत शिक्षक ) को पंचायत के अधीन किया  गया और न ही पंचायत को अधिकार प्रत्यायोजित हुऐ। अब एक छत के नीचे एक ही कार्य व पद को धारण करने वाले दो विभाग के कर्मचारी तैयार हो गए। जहाँ पद ,कार्य, कर्तव्य, दायित्व समान किन्तु अधिकार व वेतन भत्तो में जमीन आसमान का अंतर । सरकार अपनी योजना में सफल तो हो गई पर बेरोजगार युवक अल्प मानदेय में भी  इस आश में शिक्षा कर्मी बनते  गए कि भविष्य में मूल पद ( शिक्षक ) मिल जाएगा । क्योंकि इसी निर्णय में कहा गया था कि तीनों वर्ग के कर्मीगण पांच वर्ष तक संतोषजनक सेवा कर लेते है तो सरकार एक चयन प्रक्रिया अपनाकर उन्हें रिक्त पद के विरुद्ध शासकीय सेवा में नियमित नियुक्ति देने पर विचार करेगी। विभिन्न सरकारों द्वारा बेरोजगार युवक शिक्षा कर्मी बनकर छलते गए , समय बीतता गया । अवसर पाकर बीच बीच मे सड़क पर उतरते रहे। सरकार में पक्ष और विपक्ष दोनो आश्वासन देते रहे किन्तु कोई भी स्थाई समाधान के लिए इच्छा शक्ति नही दिखाई । दुःख की बात तो ये है कि राजनीतिक पार्टियां शिक्षा को भी वोट बैंक में तब्दील कर दिये है । क्योकि सत्ता पक्ष शिक्षा कर्मीयो के मांगों का विरोध करती है । जो सत्ता में आने के 14 साल पहले यहाँ तक घोषणा कर दी थी कि हमारी सरकार बनने पर एक घंटे के भीतर सारि मांगे मान कर नियमित कर देंगे । तो वही कभी सत्ता में रहे विपक्ष समर्थन करने मंच तक आ धमकती है जो घोर विरोधी थे ।
        यहां सवाल ये उठता है कि सरकार को ऐसी विसंगतिपूर्ण नीति बनाने की जरूरत पड़ी तो पड़ी क्यो ? बेरोजगारों का शोषण करने ? या एक ही छत के नीचे समान कार्य करने वाले कर्मचारियों के बीच वर्ग संघर्ष पैदा करने ? इन परिश्थितियो में राष्ट्र निर्माताओ ( शिक्षको ) के मन मे कुंठा लाजमी है । जबकि संविधान का अनुच्छेद -309 - संघ या राज्य सेवा में नियुक्त व्यक्तियों की भर्ती और सेवा शर्तों का विनियमन को दर्शाता है । " अनुच्छेद -309 - के अंतर्गत लोक सेवको की भर्ती तथा उनकी सेवा की शर्तों का विनियमन करने के लिए बनाया गया कोई अधिनियम यदि किसी भी मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है , अर्थात विशेष रूप से अनुच्छेद 14, 15, 16, 19, 310, 311, 320 के विरुद्ध है तो वह असंवैधानिक होगा ।"
* अनुच्छेद-14- में स्पष्ट प्रावधान है कि समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जायेगा।
* अनुच्छेद -15-    धर्म ,मूलवंश ,जाती ,लिंग ,जन्म-स्थान के आधार पर विभेद प्रतिषेध करता है।
*अनुच्छेद-16- लोक सेवाओं में अवसर की समानता का अधिकार प्रदान करता है।
*अनुच्छेद-19- वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  ।
अनुच्छेद-19(1)(क)-प्रदर्शन या धरना को
संरक्षण प्रदान करता है जो हिंसात्मक और  उच्छृंखल नही है।
*अनुच्छेद-310- "प्रसाद का सिद्धांत" - आशय - केन्द्रीय कर्मचारि  राष्ट्रपति और राज्य के कर्मचारि राज्यपाल के प्रसाद पर्यन्त कार्य करेंगे।
*अनुच्छेद-311-प्रसाद के सिद्धांत पर निर्बन्धन
311(1)-नियुक्तिकर्ता से निचले प्राधिकारी द्वारा पद से नही हटाया जा सकता।
311(2)-सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दिया जाना
* अनुच्छेद-320- लोग सेवा आयोग से परामर्श
        संविधान के उक्त प्रावधानों का पालन करते हुए भर्ती नियम बनाया गया हो तो हि  वह  वैध होगा । तत्कालीन म प्र सरकार ने  संविधान के अनुच्छेद -14 -  का पालन न कर घोर विसंगतिपूर्ण अधिनियम पारित कर भर्ती नियम बनाया । जिसका उद्देश्य केवल और केवल इस नियम के तहत नियुक्त कर्मचारियों का शोषण करना था । शिक्षाकर्मी आज धरना प्रदर्शन कर रहे है तो इन्ही संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए । ये सड़क की लड़ाई लड़ रहे है तो अपनी हक के लिए । प्रदर्शन कर रहे है तो शोषण के खिलाफ । वास्तव में ये विरोध है तो अन्याय के खिलाफ ।
      शिक्षाकर्मीयो की माँग " समान कार्य के लिए समान वेतन " और  "मूल पद पर संविलियन " है । पहली मांग " समान कार्य के लिए समान वेतन " जो अनुच्छेद-14- का अनुपालन होगा। दो पदों को धारण करने वालों में निम्न बिंदुओं पर समानता हो तब माना जावेगा समान कार्य जब * स्थिति एक समान हो * पदनाम की समानता * कार्य की प्रकृति तथा परिणाम * भर्ती के स्रोत और ढंग * अर्हता * उत्तरदायित्व * विश्वसनीयता * अनुभव        * गोपनीयता --में समानता हो ।उपरोक्त बिंदुओं की समानता के कारण अनुच्छेद 14 आकर्षित होता है । जो शिक्षाकर्मियों की मांग को जायज ही नही बल्कि संवैधानिक ठहराता है।
        शिक्षाकर्मीयो की दूसरी माँग  "मूल पद पर संविलियन " है। जिस पर शासन - प्रशासन व जान प्रतिनिधियो द्वारा कहा जाता है कि इनके भर्ती नियम में ऐसा उल्लेख नही है।
ये मांग बार बार इसलिए उठ रही है क्योंकि जिस दिन शिक्षाकर्मी भर्ती की परिकल्पना की गई थी उसी दिन मंत्री परिषद में ये भी निर्णय लिया गया था कि संतोषजनक पांच साल सेवा पश्चात शासकीय सेवा में नियमित नियुक्ति देने पर विचार करेगे ।तत्कालीन ( म प्र ) शासन के आदेश दि-24 -01-1998 को कहा गया था कि शिक्षाकर्मी पद शिक्षक का पूरक है।
             गौर करने वाली बात यह भी है कि मूल पद शिक्षा विभाग का है, कार्य क्षेत्र शिक्षा विभाग में, नियंत्र शिक्षा विभाग का, कार्य स्थल शिक्षा विभाग में । केवल मात्र नियुक्ति किये जाने के आधार पर कह दिया जाता है कि शिक्षाकर्मी पंचायत विभाग के कर्मचारि है ।ऐसे में ये न तो शिक्षा विभाग के हुए न पंचायत विभाग के । छत्तीसगढ़ शासन स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा दिनांक 27-06-2008 को पद संरचना (सेटअप) जारी किया गया है जिसमे शिक्षकर्मी वर्ग 1,2,3 का उल्लेख किया गया है । इससे स्पष्ट है कि शिक्षकर्मी मूलतः शिक्षा विभाग के कर्मचारि है जबकि पंचायत वभाग के सेटप में इनका कोई उल्लेख नहीं है ।
         विभिन्न आंदोलनों के दौरान विभिन्न पार्टियों के नेताओं द्वारा संविलियन का समर्थन करना, अपनी-अपनी घोषणा-पत्र में प्रमुखता से शामिल करना, शिक्षकर्मीयो के संविलियन की मांग को बल ही नही देता बल्कि जायज ठहराता है । शिक्षकर्मीयो के हड़ताल के परिपेक्ष्य में शासन द्वारा दिनांक 25-8-2008 को माननीय मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह जी के कक्ष में उनके समक्ष तथा माननीय वीरेंद्र पांडेय/सलाहकार मुख्यमंत्री / मुख्य सचिव/ प्रमुख सचिव  वित्त /सचिव आदिम जति तथा जनजाति/सचिव स्कूल शिक्षा विभाग/संचालक पंचायत एवं शिक्षकर्मी संघ के पदाधिकारियों की उपस्थिति में निर्णय लिया गया था कि-
* शिक्षकर्मीयो को क्रमोन्नत वेतनमान दिया जयेगा
* 20-20% प्राचार्य , प्रधान पाठक मिडिल, प्रधान पाठक प्रायमरी के पद शिक्षकर्मीयो से भरा जाएगा । उक्त निर्णय भी उनके सम्मिलियन की मांग को जायज ठहराता है ।इसके अलावा "छत्तीसगढ़ स्कूल शिक्षा राजपत्रित सेवा ( शाला स्तरीय ) भर्ती तथा पदोन्नति नियम 2008" में भी 25% प्राचार्य के पद शिक्षाकर्मी वर्ग 1 से भरने की बात कही गई गई थी जिसका क्रियान्वयन आज तक नही हुआ । जिससेे शिक्षकर्मीयो का धैर्य टूट गया और परिणामस्वरूप वर्तमान उग्र आंदोलन खड़ा हो गया ।
          कुछ लोग शिक्षाकर्मी की तुलना किसानों की दशा से करते है । मानते है कि छत्तीसगढ़ में ही नही पुरे देश मे किसानो की दशा दयनीय है।उन्हें अपनी खून पसीना की कमायी का उचित प्रतिफल नही मिल रहा है । शोषित पीड़ित है ।दोनो की पीड़ा में अंतर नहीं है । दोनों को उनकी अपनी परिश्रम का उचित फल मिलनी चाहिये । किसानों की चिंता हर वर्ग को  करनी चाहिए । देश दुनिया के लोगों की उदराग्नि शांत करने वाला कोई  है तो वो है किसान । फिर उनकी उपेक्षा क्यो ? शायद एक बड़ा संगठन का अभाव है जिससे वे अपना हक मांग सकें । आज किसान और किसान  हितैषी लोगों से शिक्षाकर्मी अपेक्षा करते है कि उनकी वैधानिक मांगों का पुरजोर समर्थन करें और उनका हक दिलाये । जिस दिन ये शुभ कार्य आप सब के सहयोग से फलीभूत होगा मैं विश्वास दिलाता हूँ  शिक्षाकर्मी भी जान भावनावों का आदर कर कंधे से कंधा मिलाकर हर संभव भरपूर सहयोग प्रदान करेगा ।

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